सोमवार, जुलाई 27, 2009

तुझे क्या देखूं

फ़ुरसत नही हमें ख़ुद ही से..
एय अलम तुझे क्या देखूं ..

जो देख लिया इक बार उसे..
ये एहले -जहाँ क्या देखूं ..

समंदर एक बूँद में देख लिया है..
कतरा भर पानी का मश्क क्या देखूं..

आरजुए ले आई हैं इतनी दूर हमें ..
मुमकिन नहीं के अब मुड़कर देखूं ..

जी जो अब तक भरा ही नही "काफिर" उनसे..
गुंजाइश कहाँ के किसी और को देखूं ...

मंगलवार, जुलाई 14, 2009

जो तेरा सजदा न करू तो क्या करू

जो तेरा सजदा न करू तो क्या करू ..
तुझपर भी एतबार न करू तो क्या करू ..

आदमी को आदत है सर को झुकाने की ..
झुकने  को तेरा दर न मिले तो क्या करू ..

देखा कहा किसी ने तुझे  रवा होते..
और तेरी कैफियत से इनकार क्या करू..

मंजिल मिले न मिले सही..
मैं तो तेरी ही कश्ती का सवार क्या करू ..

काफिला -कारवां रास्ते कई है..
पर तेरी राह न मिले तो क्या करू ..

तुझे ढूंडा है तबसे मैं हूँ जबसे ..
रवायत सी हो गई है क्या करू..

गया जो दम तो गए हैं "काफिर" भी ..
जो था तुझसे ही दम तो क्या करूँ ..

सोमवार, जुलाई 13, 2009

ये दस्तूर-ऐ-दुनिया

काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते ...
मिलते जब किसी से..
कुछ वादे जताते..
और फ़िर उसे भूल भी जाते ..

काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते ...
दोस्ती का करार होता किसी से अगर ..
कभी हम भी उनसे..
अदावत ही निभाते ..

काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते...
हमकदम, हमदर्द ,हमराज़ ..
कहते भी उन्हें ...
और हर एक राज़ भी ...
उन्ही से छुपाते...

काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते ..
सूरत ऐ "काफिर" कौन देखता है यहाँ ..
हम भी कभी ...
चेहरे पे चेहरा लगाते .. 
काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते ..

रविवार, जुलाई 12, 2009

इतना मिला जो तेरा साथ

इतना मिला जो तेरा साथ बहुत है..
अब ये जो फासला है दरमिया...बहुत है..

गुजारे है हमने जिंदगी के लम्हे तमाम...
अब गुजर के लिए तेरी यादे बहुत है..

कुछ भी न बचा तुम्हे बताने को...लेकिन ...
कुछ राज़ थे.. जिन्हें सुनने को तू ही वाहेद है..

तुम्हे भूले अगर तो ख़ुद का पता पूछेंगे ..पर..
दिल आज तुम्हे भूलने का तलबगार बहुत है

ज़िन्दगी पे इख्तियार हमारा नही..
वरना आज मन मरने को बेकरार बहुत है..

गिला उनकी रुसवाई का हमें नही है.. मगर
अपनी ना-समझी पर हम आज उदास बहुत है..

ना समझे है ना समझेंगे वो मेरी बात को..
"काफिर" आज भी उनमे उनका बचपना बहुत है..

शनिवार, जुलाई 11, 2009

मेरा पागलपन

क्या हमारा पागलपन के ये हम क्या किए..

किया वही जो तकदीर ने हमारे लिए तय कियें ..

लिए वो फैसलें.. जो दूसरो ने हमारे लिए थे किए..

समझते थे मुस्तकबिल हम ख़ुद बनाएँगे…

समझे अब आकर की ये तो हम ख़ुद ही बना कियें ..

हाथों की रेत ज्यों – ज्यों कसी हमने ...

हम उतना ही मुसलसल हाथों से गवां दिए ..

“काफिर" कभी मर्ज़ी अपनी चलाएंगे…

जिंदगी सारी यही सोच हम गवां दियें..