तुम से मिलता हूँ तुम सा हो जाता हूँ..
तू मेरा फलसफा मैं तेरा किस्सा हो जाता हूँ..
हाल-ऐ-बयाँ ये तुम से कैसे करे " काफिर"..
तुम्हे जो देखता हूँ सब कुछ भूल जाता हूँ..
तेरी कमियों को हज़ार बार गिना है मैंने..
हर बार तेरी अच्छाइयों से हार जाता हूँ..
तुम मिलते हो तो चैन-ओ-सुकून है ज़िन्दगी में..
तुम्हारे जाते ही मशर में भी अकेला रह जाता हूँ..
तुम जब जाओगे तो हिज्र-ऐ-हालत का मज़मून यही होगा..
अब मुझसे जलेंगे कैसे लोग तुम से ही तो दुनिया को जलाता हूँ...
और क्या चाहूं मैं तुम से क्या कहूं कर सको तो इतना करो..
मेरी यादों में तू बसे और मैं तेरी यादों में ठिकाना चाहता हूँ ..
मंगलवार, सितंबर 15, 2009
रविवार, अगस्त 09, 2009
क्या बताये क्या है हम
क्या बताये क्या है हम..
तब भी गधे थे, अब भी गधे है हम..
लोग कहते है इकीसवी सदी है..
और, सत्रहवी सदी का सामान है हम..
आमद से हमारी भगदड़ यूँ होती है..
गोया हिरनों के झुंड में शेर है हम..
हिदायत है सब को, कम बोलो हमसे..
के गुफ्तगू में सलीके दार है हम..
इस तरह लोग साथ मेरा चाहते है..
बेईमान ना बनू पर, ईमानदार रहू कम..
ग़लतियाँ करना फितरत है में है "काफिर"..
क्या करे के हम दुनिया दार है कम..
तब भी गधे थे, अब भी गधे है हम..
लोग कहते है इकीसवी सदी है..
और, सत्रहवी सदी का सामान है हम..
आमद से हमारी भगदड़ यूँ होती है..
गोया हिरनों के झुंड में शेर है हम..
हिदायत है सब को, कम बोलो हमसे..
के गुफ्तगू में सलीके दार है हम..
इस तरह लोग साथ मेरा चाहते है..
बेईमान ना बनू पर, ईमानदार रहू कम..
ग़लतियाँ करना फितरत है में है "काफिर"..
क्या करे के हम दुनिया दार है कम..
शनिवार, अगस्त 08, 2009
किसे तलाश किया करते हो
किसे तलाश किया करते हो..
अकेले में क्या बात किया करते हो..
क्यूँ ये हालत ये माजरा क्या है..
सब है भीड़ में तुम ही तन्हा हुआ करते हों..
पुरानी सी शकल ये जो आईने में है..
रिश्ता अपना- उसका बस पूछा करते हों..
कभी यूँ भी हो के मिलो उससे..
जिसके साथ - साथ चला करते हो..
ढूंढोगे तो कोई मिल ही जाएगा..
घर का दरवाजा क्यूँ बंद रखा करते हो..
माना के सफ़र अकेले ही काट लोगे "काफिर"..
पर शायद किसी के साथ की दुआ भी किया करते हो ..
अकेले में क्या बात किया करते हो..
क्यूँ ये हालत ये माजरा क्या है..
सब है भीड़ में तुम ही तन्हा हुआ करते हों..
पुरानी सी शकल ये जो आईने में है..
रिश्ता अपना- उसका बस पूछा करते हों..
कभी यूँ भी हो के मिलो उससे..
जिसके साथ - साथ चला करते हो..
ढूंढोगे तो कोई मिल ही जाएगा..
घर का दरवाजा क्यूँ बंद रखा करते हो..
माना के सफ़र अकेले ही काट लोगे "काफिर"..
पर शायद किसी के साथ की दुआ भी किया करते हो ..
सोमवार, जुलाई 27, 2009
तुझे क्या देखूं
फ़ुरसत नही हमें ख़ुद ही से..
एय अलम तुझे क्या देखूं ..
जो देख लिया इक बार उसे..
ये एहले -जहाँ क्या देखूं ..
समंदर एक बूँद में देख लिया है..
कतरा भर पानी का मश्क क्या देखूं..
आरजुए ले आई हैं इतनी दूर हमें ..
मुमकिन नहीं के अब मुड़कर देखूं ..
जी जो अब तक भरा ही नही "काफिर" उनसे..
गुंजाइश कहाँ के किसी और को देखूं ...
एय अलम तुझे क्या देखूं ..
जो देख लिया इक बार उसे..
ये एहले -जहाँ क्या देखूं ..
समंदर एक बूँद में देख लिया है..
कतरा भर पानी का मश्क क्या देखूं..
आरजुए ले आई हैं इतनी दूर हमें ..
मुमकिन नहीं के अब मुड़कर देखूं ..
जी जो अब तक भरा ही नही "काफिर" उनसे..
गुंजाइश कहाँ के किसी और को देखूं ...
मंगलवार, जुलाई 14, 2009
जो तेरा सजदा न करू तो क्या करू
जो तेरा सजदा न करू तो क्या करू ..
तुझपर भी एतबार न करू तो क्या करू ..
आदमी को आदत है सर को झुकाने की ..
झुकने को तेरा दर न मिले तो क्या करू ..
देखा कहा किसी ने तुझे रवा होते..
और तेरी कैफियत से इनकार क्या करू..
मंजिल मिले न मिले सही..
मैं तो तेरी ही कश्ती का सवार क्या करू ..
काफिला -कारवां रास्ते कई है..
पर तेरी राह न मिले तो क्या करू ..
तुझे ढूंडा है तबसे मैं हूँ जबसे ..
रवायत सी हो गई है क्या करू..
गया जो दम तो गए हैं "काफिर" भी ..
जो था तुझसे ही दम तो क्या करूँ ..
तुझपर भी एतबार न करू तो क्या करू ..
आदमी को आदत है सर को झुकाने की ..
झुकने को तेरा दर न मिले तो क्या करू ..
देखा कहा किसी ने तुझे रवा होते..
और तेरी कैफियत से इनकार क्या करू..
मंजिल मिले न मिले सही..
मैं तो तेरी ही कश्ती का सवार क्या करू ..
काफिला -कारवां रास्ते कई है..
पर तेरी राह न मिले तो क्या करू ..
तुझे ढूंडा है तबसे मैं हूँ जबसे ..
रवायत सी हो गई है क्या करू..
गया जो दम तो गए हैं "काफिर" भी ..
जो था तुझसे ही दम तो क्या करूँ ..
सोमवार, जुलाई 13, 2009
ये दस्तूर-ऐ-दुनिया
काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते ...
मिलते जब किसी से..
कुछ वादे जताते..
और फ़िर उसे भूल भी जाते ..
काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते ...
दोस्ती का करार होता किसी से अगर ..
कभी हम भी उनसे..
अदावत ही निभाते ..
काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते...
हमकदम, हमदर्द ,हमराज़ ..
कहते भी उन्हें ...
और हर एक राज़ भी ...
उन्ही से छुपाते...
काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते ..
सूरत ऐ "काफिर" कौन देखता है यहाँ ..
हम भी कभी ...
चेहरे पे चेहरा लगाते ..
काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते ..
मिलते जब किसी से..
कुछ वादे जताते..
और फ़िर उसे भूल भी जाते ..
काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते ...
दोस्ती का करार होता किसी से अगर ..
कभी हम भी उनसे..
अदावत ही निभाते ..
काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते...
हमकदम, हमदर्द ,हमराज़ ..
कहते भी उन्हें ...
और हर एक राज़ भी ...
उन्ही से छुपाते...
काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते ..
सूरत ऐ "काफिर" कौन देखता है यहाँ ..
हम भी कभी ...
चेहरे पे चेहरा लगाते ..
काश हम भी दस्तूर-ऐ-दुनिया निभाते ..
रविवार, जुलाई 12, 2009
इतना मिला जो तेरा साथ
इतना मिला जो तेरा साथ बहुत है..
अब ये जो फासला है दरमिया...बहुत है..
गुजारे है हमने जिंदगी के लम्हे तमाम...
अब गुजर के लिए तेरी यादे बहुत है..
कुछ भी न बचा तुम्हे बताने को...लेकिन ...
कुछ राज़ थे.. जिन्हें सुनने को तू ही वाहेद है..
तुम्हे भूले अगर तो ख़ुद का पता पूछेंगे ..पर..
दिल आज तुम्हे भूलने का तलबगार बहुत है
ज़िन्दगी पे इख्तियार हमारा नही..
वरना आज मन मरने को बेकरार बहुत है..
गिला उनकी रुसवाई का हमें नही है.. मगर
अपनी ना-समझी पर हम आज उदास बहुत है..
ना समझे है ना समझेंगे वो मेरी बात को..
"काफिर" आज भी उनमे उनका बचपना बहुत है..
अब ये जो फासला है दरमिया...बहुत है..
गुजारे है हमने जिंदगी के लम्हे तमाम...
अब गुजर के लिए तेरी यादे बहुत है..
कुछ भी न बचा तुम्हे बताने को...लेकिन ...
कुछ राज़ थे.. जिन्हें सुनने को तू ही वाहेद है..
तुम्हे भूले अगर तो ख़ुद का पता पूछेंगे ..पर..
दिल आज तुम्हे भूलने का तलबगार बहुत है
ज़िन्दगी पे इख्तियार हमारा नही..
वरना आज मन मरने को बेकरार बहुत है..
गिला उनकी रुसवाई का हमें नही है.. मगर
अपनी ना-समझी पर हम आज उदास बहुत है..
ना समझे है ना समझेंगे वो मेरी बात को..
"काफिर" आज भी उनमे उनका बचपना बहुत है..
शनिवार, जुलाई 11, 2009
मेरा पागलपन
क्या हमारा पागलपन के ये हम क्या किए..
किया वही जो तकदीर ने हमारे लिए तय कियें ..
लिए वो फैसलें.. जो दूसरो ने हमारे लिए थे किए..
समझते थे मुस्तकबिल हम ख़ुद बनाएँगे…
समझे अब आकर की ये तो हम ख़ुद ही बना कियें ..
हाथों की रेत ज्यों – ज्यों कसी हमने ...
हम उतना ही मुसलसल हाथों से गवां दिए ..
“काफिर" कभी मर्ज़ी अपनी चलाएंगे…
जिंदगी सारी यही सोच हम गवां दियें..
किया वही जो तकदीर ने हमारे लिए तय कियें ..
लिए वो फैसलें.. जो दूसरो ने हमारे लिए थे किए..
समझते थे मुस्तकबिल हम ख़ुद बनाएँगे…
समझे अब आकर की ये तो हम ख़ुद ही बना कियें ..
हाथों की रेत ज्यों – ज्यों कसी हमने ...
हम उतना ही मुसलसल हाथों से गवां दिए ..
“काफिर" कभी मर्ज़ी अपनी चलाएंगे…
जिंदगी सारी यही सोच हम गवां दियें..
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